नई दिल्ली। नागरिकता संशोधन कानून पर काफी हंगामा मचा है। सुप्रीम कोर्ट में भी दर्जन भर से ज्यादा याचिकाओं में इसे चुनौती दी गई है। बुधवार को सुनवाई होने की संभावना है। ऐसे में देखना होगा कि संशोधित कानून क्या कहता है और कोर्ट में कानून की वैधानिकता परखने का क्या मानदंड है? क्या यह कानून उन पर खरा उतारता है। कानून का विश्लेषण करने, तय मानदंड व पूर्व फैसलों को देखने से लगता है कि कोर्ट में इसे खारिज कराना बहुत आसान नहीं होगा। विशेषज्ञ कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट यह देखेगा कि इस कानून से किसके और किस मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है।
अनुच्छेद 14 तर्कसंगत वर्गीकरण की इजाजत देता है
नागरिकता संशोधन कानून को धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला बताते हुए संविधान के धर्मनिरपेक्षता के मूल ढांचे और अनुच्छेद 14 में दिये गए बराबरी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन बताया जा रहा है, लेकिन इस पर सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि अनुच्छेद 14 तर्कसंगत वर्गीकरण की इजाजत देता है और इस कानून में भी तर्कसंगत वर्गीकरण है।
कानून किस उद्देश्य से लाया गया है यह कानून के उद्देश्य में ही स्पष्ट है
कानून किस उद्देश्य से लाया गया है यह कानून के उद्देश्य में ही स्पष्ट है। इसमें धार्मिक रुप से प्रताडि़त लोगों को नागरिकता देने की बात कही गई है। यह कानून हर तरह के शरणार्थी को नागरिकता देने की बात नहीं कर रहा। धार्मिक रूप से सताए शरणार्थियों और अपने बेहतर जीवन और निवास की सुविधा की आस में आए शरणार्थियों में अंतर है। तर्कसंगत वर्गीकरण के आधार पर ही अल्पसंख्यकों के लिए विशेष व्यवस्था या आरक्षण की अवधारणा टिकी है।
संविधान में संसद को नागरिकता पर कानून बनाने का है पूर्ण अधिकार
कानून को चुनौती देने के दो आधार होते हैं। पहला, संसद को ऐसा कानून बनाने का अधिकार है कि नहीं और दूसरा, कि कानून संविधान में दिये गए मौलिक अधिकार का हनन तो नहीं करता। मौजूदा मामला देखें तो संविधान का अनुच्छेद 11 संसद को नागरिकता के बारे में कानून बनाने का पूर्ण और अबाधित अधिकार देता है। ऐसे में इतना साफ है कि संसद को यह कानून बनाने का अधिकार था।
कोर्ट देखेगा किसके और किस मौलिक अधिकार का हनन हुआ है
अनुच्छेद 32 नागरिकों को मौलिक अधिकार के हनन पर रिट दाखिल करने का अधिकार देता है। यदि पीडि़त स्वयं कोर्ट नहीं आ सकता तो उसकी ओर से कोई और याचिका कर सकता है। ज्ञानंत कहते हैं कि इस मामले में कोर्ट यह देखेगा कि किसके और किस मौलिक अधिकार का हनन हुआ है। जिनके मौलिक अधिकारों के हनन की बात कही जा रही है क्या वे भारतीय नागरिक हैं। किसी विदेशी का नागरिकता पाने का मौलिक अधिकार कैसे हो सकता है। अगर किसी नागरिक की नागरिकता छीनी जा रही होती तो कोर्ट उसमे दखल दे सकता है।
संसद का विवेकाधिकार है कि वह किसे नागरिकता दे और किसे न दे
ज्ञानंत कहते है कि यह संसद का विवेकाधिकार है कि वह किसे नागरिकता दे और किसे न दे। संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन का तर्क गलत है क्योंकि यहां संविधान में संशोधन नहीं किया गया है बल्कि अलग कानून है और उसे बनाने का संसद को अधिकार है।
विदेशियों को देश मे बसने का मौलिक अधिकार नहीं
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने हंस मुलर आफ न्यूनबर्ग बनाम प्रेसीडेंसी जेल कलकत्ता मामले में 1955 में दिये गए फैसले में कहा था कि विदेशियों का मौलिक अधिकार सिर्फ अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार तक ही सीमित हैं। उन्हें अनुच्छेद 19 (1)(ई) के तहत देश में कहीं भी बसने और रहने का मौलिक अधिकार नहीं है। अनुच्छेद 19 में अधिकार सिर्फ भारत के नागरिकों को है।
भारत सरकार को विदेशियों को बाहर निकालने का पूर्ण अधिकार है
कोर्ट ने कहा था कि भारत सरकार को विदेशियों को बाहर निकालने का असीमित और पूर्ण अधिकार है और संविधान में कोई भी ऐसा प्रावधान नहीं है जो सरकार के इस अधिकार पर रोक लगाता हो। संविधान पीठ के इस फैसले पर 1991 में मिस्टर लुइस डे रेड्ट बनाम भारत सरकार के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने फिर मुहर लगाई।
विदेशी नागरिक भारतीय नागरिकों से बराबरी के अधिकार का दावा नहीं कर सकता
इसके बाद 1995 में डेविड जान होपकिंग मामले मे मद्रास हाईकोर्ट ने उद्धत किया। साथ ही कहा कि भारत सरकार के पास नागरिकता देने से मना करने की असीमित शक्ति है। सरकार बिना कारण बताए नागरिकता देने से मना कर सकती है। विदेशी नागरिक अनुच्छेद 14 के तहत भारतीय नागरिकों से बराबरी के अधिकार का दावा नहीं कर सकता।