विश्वविद्यालय में पढ़ रहे छात्रों के सहारे सीएए, एनआरपी व एनआरसी विरोध की हवा सुलगाने में लगे विपक्षी दलों को अब शायद समझ लेना चाहिए कि उनकी जमात बहुत छोटी है। अब यह साफ होने लगा है कि सत्ता के लिए कांग्रेस महात्मा गांधी, मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी से भी खुद को अलग करने के लिए तैयार है।
कांग्रेस सीएए के विरोध के नाम पर विपक्षी दलों को इकट्ठा कर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती है
महात्मा गांधी ने शरणार्थियों के लिए क्या कहा था कांग्रेस भूल गई है। कांग्रेस के नेताओं की ओर से बंग्लादेश और पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने की वकालत की जाती रही है। लेकिन कांग्रेस उसे झुठलाने में लग गई है। फिलहाल कांग्रेस सिर्फ अपने तले विपक्षी दलों को इकट्ठा कर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती है। यह सिर्फ मुट्ठीभर लोगों को स्वीकार्य है।
प्रणव समिति का सुझाव- बांग्लादेश से आए सिर्फ अल्पसंख्यक शरणाथियों को नागरिकता दिया जाए
राज्यसभा की वह रिकार्डिग सभी ने देखी है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में खड़े होकर यह मांग की थी। 2003 में प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में राज्यसभा की एक समिति ने भी यही सुझाव दिया था। बताते हैं कि उस समिति में कपिल सिब्बल, हंसराज भारद्वाज, मोतीलाल वोरा, जनेश्वर मिश्रा, लालू प्रसाद यादव, राम जेठमलानी समेत कई सांसद थे। उस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि ‘नागरिकता बांग्लादेश से आए केवल अल्पसंख्यक शरणार्थी को दिए जाएं, वहां के बहुसंख्यकों को नहीं।’
लेकिन कांग्रेस है कि मानती ही नहीं
यह संसदीय समिति की रिपोर्ट थी, किसी राजनीतिक दल की नहीं, लेकिन कांग्रेस है कि वह मनमोहन सिंह की मांग को भी नहीं मान रही और संसदीय समिति की रिपोर्ट को भी नहीं।
असलियत समझकर विपक्षी दल अब कांग्रेस से कन्नी काटने लगे
बहरहाल, कांग्रेस की असलियत सामने आ गई है। पहले तो कुछ दिनों तक चुप रही, लेकिन जब दिखा कि इस मुद्दे पर विश्वविद्यालयों को भड़काया जा सकता है तो मौका देख कूद पड़ी और अब लीड लेने की कोशिश हो रही है। सोमवार की बैठक जिस तरह असफल रही उससे भी यही साबित होता है। बहुत दिन नहीं बीते हैं, तब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे और विपक्षी दलों के बीच सबसे ज्यादा मुखर ममता बनर्जी कांग्रेस की ओर से बुलाई गई बैठकों से बाहर होती थीं। तब यह कहा जा रहा था कि ममता राहुल के नेतृत्व को नहीं स्वीकारती है। अब सोनिया अध्यक्ष हैं, लेकिन ममता, मायावती, आम आदमी पार्टी बैठक से दूर रही। दरअसल यह केवल नेतृत्व का मामला नहीं है। ऐसा कोई भी दल कांग्रेस को नहीं स्वीकार रहा है जिसे कांग्रेस की बैसाखी नहीं चाहिए।
टीसी, सपा, बसपा, आप समेत शिवसेना भी विपक्षी बैठक से बाहर रही
बैठक में तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा और आप का न होना। महाराष्ट्र में विचारधारा को त्यागकर शिवसेना के साथ सरकार बनाने के बाद से बार-बार कोशिश हो रही है कि विपक्षी बैठकों में शिवसेना को भी लाया जाए। लेकिन शिवसेना इस बार भी बैठक से बाहर रही। बैठक में शामिल होने वाले कौन थे?
बैठक में केवल कांग्रेस के ही बड़े नेता शामिल थे
राकांपा नेता शरद पवार और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को छोड़ दिया जाए तो बाकी दलों व नेताओं की अहमियत बहुत नहीं है। वाममोर्चा जिसका अस्तित्व केरल और जेएनयू के बाहर खत्म हो गया है, राजद जो बिहार में लालू की गैरमौजूदगी में आधार खोता जा रहा है। उससे भी ज्यादा अहम यह है कि बैठक में राजद नेता तेजस्वी नहीं आते हैं। बिहार में सीएए के खिलाफ बंद भी कांग्रेस और राजद अलग-अलग करते हैं। एलजेडी मुखिया शरद यादव और लोकसभा में एक सीट भी बचा पाने से असफल रहे आरएलएसपी नेता उपेंद्र कुशवाहा। इन नेताओं के अलावा बैठक में केवल कांग्रेस के ही बड़े नेता शामिल थे।
बैठक में छात्रों की भूमिका को अहम माना गया
बताते हैं कि बैठक में छात्रों की भूमिका को अहम माना गया। स्पष्ट है कि अब तक विश्वविद्यालयों में जो कुछ हुआ उसके पीछे इनका हाथ था। संविधान की दुहाई दे रही कांग्रेस को अगर इसका भी अहसास नहीं है कि जिस तरह केंद्रीय कानून के खिलाफ सड़क पर आग लगाई जा रही है तो यह दुखद है। और अगर एतिहासिक परिप्रेक्ष्य का अहसास होते हुए भी केवल सियासत के लिए यह किया जा रहा है तो खतरनाक है।